Saturday, November 2, 2019

Driving Dreams - दोस्ती

मुंबई की भीड़ में कहानियों की इतनी गठरियां हैं की रोज एक नई कहानी सुनेंगे तो भी खत्म नहीं होंगी।
काली पीली टैक्सी चलाने वालों का, इस शहर से गहरा रिश्ता है, मुंबई नगरी में टैक्सी चलाते चलाते कई परिवार बने, कईयों ने नए रिश्ते बनाए और कई परिवारों ने खुद को उठाया और नए सिरे से बनाया। ऐसी ही कुछ कहानियां मैं आपके साथ बांटूगी। पहला किस्सा है - दोस्ती का

- दोस्ती -
रामपुर की गलियों से गाने, दोहे, चौपाइंयां गाते हुए धुलाराम पांडे एक नई सुबह की तलाश में आंखों में सपने सजाए 24 साल की उम्र में मुंबई आ गया। जून के भभकते महीने में उत्तर प्रदेश के छोटे से कसबे से मुबंई तक का सफर तय करने का हौंसला धुलाराम को उसके दोस्त रौशन से मिला। रौशन मुबंई की एक लॉजिस्टिक फैक्ट्री में काम करता था। मुंबई पहुंचते ही धुलाराम ने रौशन को भी वहीं काम दिलवा दिया। और वो रौशन के साथ ही रहने लगा।

मुंबई की बारिश ने मानो धुलाराम की मुशकिलें धो दी थीं और नई जिंदगी का आगाज़ हो गया था। पहले महीने की अपनी तंख्वा का आधा हिस्सा उसने घर अपने माता पिता को भेजा। अपने दोस्त के साथ, इस महानगर में उसके दिन बढ़िया गुजर रहे थे। मुंबई में काम करने आया धुलाराम 10वीं पास था, लेकिन इस शहर में रहने के अंदाज और पैसे कमाने के तरीकों से अंजान था।

6 माह गुजर गए, सब कुछ सही चल रहा था। धुलाराम ने कई दोस्त बना लिए थे। बाते करने में चपल और गाने गाने का शौकीन धुलाराम शहर की भीड़ में रचने बसने लगा था।

एक दिन फैक्ट्री के अपने बाकी साथियों के साथ बैठ उन्हें रामायण की चौपाइंया गा गा कर सुना रहा था। की उसके एक दोस्त ने सवाल किया - "भाई धुलाराम तुम यहां समय से ज्यादा काम करते हो, कितनी extra कमाई हो जाती है?" धुलाराम ने जवाब में सवाल किया - "extra कमाई, मतलब? मुझे तो 12 हजार रु मिलते हैं 12 घंटे रोज काम करने के।" ये सुन कर उसके साथी हैरान रह गए। एक दूसरे का मूंह ताकने लगे, फिर हिम्मत जुटा कर एक दोस्त बोला, भाई धुलाराम क्या तुम जानते हो हम सबको यहां 18 हजार मिलते हैं 8 घंटे काम करने के। और तुम तो पढ़े लिखे हो, फिर सब एक सुर में बोले, "साहब से बात करो ये क्या घोटाला है।" 

अपने साथियों की ये बात सुन कर धुलाराम काफी परेशान हो गया। रात भर सोचता रहा, और फैसला किया की पहले रौशन से बात करेगा। रौशन कुछ दिन के लिए शहर से बाहर था, तो धुलाराम ने उसका इंतजार करना ठीक समझा। लेकिन इस बीच उसे घर से फोन आया, माती पिता ने उसके लिए लड़की देख ली थी। और अब शादी के लिए बुला रहे थे। अरे लड़का मुंबई में काम करता है, ये शान की बात थी।

अब एक तरफ पैसे का घपला और दूसरी तरफ शादी की योजना। धुलाराम की परेशनी दोगुनी हो गई। वो रौशन के साथ मुफ्त में नहीं रहता था। उसे किराया देता था, खाने पीने का सामान भी हर दूसरे महीने धुलाराम ही लाता था। उसे विश्वास था की रौशन उसके साथ कुछ गलत नहीं होने देगा। लेकिन उसकी रातों की नींद उड़ गई थी।

नवंबर की उस तीखी सुबह भिवंड़ी में अपनी फैक्ट्री पहुंचते ही, धुलाराम का इंतजार का बांध टूटा औप साहब के पास गया। "साहब, आपसे एक बात करनी थी।"  साहब बोले - "हां भाई धुलाराम कहो क्या हुआ?" - "सहब मुझे यहां काम कर रहे बाकी साथियों से कम पगार मिलती है और मुझे काम भी ज्यादा घंटे करना होता है, ऐसे क्यों है?"
साहब बिना किसी हिचकिचाहट के बोले - "धुलाराम तुम रौशन के बदले का आधा काम करते हो, 4 घंटे वो हैं, और रौशन ने तुम्हें लगवाते वक्त बताया था की तुमहारी नौकरी लगवाने के तुम उसे हर महीने 5 हजार रु साल भर तक दोगे, जो तुमहारी पगार की जगह रौशन की पगार में जुड़ जाते हैं।"

ये सुन कर धुलाराम के पैरों तले जीमन खिसक गई। इतना बड़ा धोखा। दोस्ती के मइयने ही बदल गए उसके लिए। विश्वास, साथ और दोस्त के लिए इंज़त सब खाख में मिल गई। धुलाराम निराशा से टूट गया, फैक्ट्री के बाकी साथियों ने साहस बंधाया। लेकिन अब धुलाराम ने मन बना लिया था न यहां काम करेगा, न रौशन के साथ रहेगा। उसने उसी रात अपना बोरिया बिस्तरा बांधा और गांव निकल गया।

गांव पहुंचा तो वहां माहोल ही अलग था। घर में रिश्तेदारों की भीड़ ने उसका स्वागत किया। नौकरी की उलझन में वो ये भूल गया था की उसकी शादी की तारीख पक्की कर दी गई है। गोबर से लिपटे आंगन में बैठे धुलाराम,
मट्टी के बने अपने गांव के घर की ओर एक टक देखता रहा। आगे की जिंदगी मौनों एक पहाड़ बन कर खड़ी थी। बहुत देर सोचने के बाद उसने अपने जीवन का सबसे बड़ा फैसला लिया।

धुलाराम ने शादी की, अपनी नई दुहलन को एक महीने में मुंबई ले जाने का वादा कर वो शादी के तीसरे दिन मुंबई के लिए निकल गया। कमाल की बात ये थी की रौशन ने इतने दिन उसकी कोई खेर खबर नहीं ली। अपने नए इरादों के साथ मुंबई की जमीन पर एक बार फिर धुलाराम ने कदम रखा और इसबार वो मुड़ कर देखने को तैयार नहीं था।

धुलाराम के पास ड्राइविंग लाइसेंस था और उसने टैक्सी चलाने का काम शुरू कर दिया। एक महीना बीत गया। अब अपनी पत्नि से किया वादा निभाने की बारी थी, जिसके लिए धुलाराम के पास एक ठीक सी खोली या कमरा होना जरूरी था। दिनभर कमरा खोजता और रात भर टैक्सी चला कर पैसे कमाता। हफ्ते भर में साईन के पास एक खोली के उपर का कमरा मिल गया। धुलाराम ने अपने माता पिता को फोन लगाया और कहा की वो अपनी पत्नी को लेने पहुंच रहा है।

जुलाई 2001 को मुंबई की मुस्लाधार बारिश में धुलाराम अपनी बीवी को लेकर मुंबई के कुर्ला स्टेशन पर उतरा। मासूम सी गांव की सरीता ने पहली बार इतनी भीड़ देखी। उसने धुलाराम का हाथ जोर से पकड़ लिया। वो दिन था और आज का दिन है धुलाराम और सरीता को मुंबई में 17 साल हो गए हैं। उनके तीन बच्चे हैं, खुद का एक कमरे का घर है। धुलाराम आज भी चौपाइंया गाते गाते टैक्सी चलाता है।

"दोस्ती या तो पार लगाती है, या फिर खा जाती है" धुलाराम पांडे जी के इस वाक्य में छुपी थी उनकी कहानी।

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